Tuesday, November 28, 2006

बेटा संस्कार है बेटी संस्कृति


कल मैने भारत फोन लगा कर अपनी माता जी से बात की और पूछा की वो क्या कर रही है तो उन्होने बडी ही नाराज होते हुये कहा की वो लड्के होने की खुशी मे जो रसगुल्ले की हांडी आयी है उसे खाली कर रहीं हैं, साथ में यह भी कहा कि जब तक रसगुल्ले की हांडी बन्द नहीं होगी तब तक दहेज प्रथा बन्द नही होगी । लड़के की चाहत मे लड्की को जन्म से पहले ही मार दिया जाता है । हमारी नानी जी ने लड्की होने की खुशी मे पूरे मोह्ल्ले मे मिठाई बाँटी तो मोह्ल्ले वालों को विश्वास नहीं हो रहा था कि कोई लडकी होने की खुशी में मिठाई बाँट सकता है ।

यह कितने दुख की बात है की एक नारी दूसरी नारी की हत्या अपनी कोख में ही कर देती है । आज कल जो सोनोग्राफ़ी का प्रचलन चल गया है और उससे पता कर लेना की सन्तान लड़का है या लड्की, वो एक द्र्ष्टि से विदेश मे ही सही है क्यूं कि उन्हे उस तरह से जीना होता है । वो पहले से ही सन्तान के लिय सामान एकत्र करते है और हमारे यहाँ सन्तान के लिय पहले से कुछ नहीं ले कर रखते है । पहली नयी चीज बुआ की और से होती है बच्चे के लिये ।

पुराने समय मे बच्चे काफ़ी होते थे और एक दूसरे के कपडे या किताबे और खिलोने इस्तेमाल किया करते थे । लेकिन आज समय एसा है की आज के बच्चे हर चीज नयी चाहिए ।

मेरी एक सहेली है, उसकी चाची को लड़के की चाहत में चार लड्की हुई । आज चारों लडकियाँ अच्छा पढ़ रही है, लेकिन फिर भी सहेली की चाची को लड्के की चाहत है।
ऎसा क्यूं है कि हम अपनी सोच को आज भी नही बदल पा रहे है । दादी ,बुआ, चाची यह सब भूल जाती है की वो भी एक नारी है जो एक लड्के की चाहत करती है।
आज कल टी वी पर बेटियो पर सीरियल दिखाया जा रहा है । लेकिन दिखाने से क्या होगा । हमे अपने सोच में परिवर्तन करना होगा ।

हालाकिं हमारे हजारों साल के संस्कार यही कहते है कि बेटे के बिना सदगति नही है । पिता जिंदगीभर बेटे के लिय जमीन- आसमान एक करता रहता है और अगर बेटा देश में हुआ तो जाने-अनजाने प्रतीक्षा करता है कि पिता कब उसे "मुक्त" करे ।

भारतीय समाज के सारे भ्रष्टाचार बेटे के नाम पर ही किये जाते हैं--- दहेज से लेकर घूस,हत्या तक । बेटी को लेकर आप संवेदनशील और भावुक होते हैं जबकि बेटा प्रतिस्पर्धा, गर्व या शर्म जगाता है ।

भगवान बेटे तो दे पर बेटी जरूर दे ताकि घर आंगन महकता रहे । चाहे बेटियों के ससुराल जाने से बेठकें सूनी हो जाती हैं, तो भी उनकी कुशल आने से उनके बच्चों के चाव से घर महकता रहे । जितना ध्यान बेटियां मां- बाप का रखती है उतना बेटे नहीं रखते । बेटी को बडा करना एक संस्कृति को बडा करना है ।

Saturday, September 30, 2006

देवी-परिक्रमा






है न अदभुत !!!!! बंगाल मे जन्म लेने का सौभाग्य मिला है मुझे !!! इन्हीं देवी दुर्गा के कारण !!! दुर्गा पूजा के दौरान बंगाल ऎसे दमक उठता है जैसे स्वर्ग यही है । सड़क पर देवी दर्शन को जाते सजे-धजे लोग ऎसे लगते हैं मानो देवता एक बार फिर राक्षस-वध हेतु देवी को मनाने निकले हों । बचपन से मैं दुर्गा पूजा देखती आ रही हूँ, सोचा जिस देवीत्व से मैं लाभान्वित होती रही हूँ, क्यों न आपको भी उस के दर्शन कराऊँ, कैसा लगा, अपने विचार लिखियेगा ।

Tuesday, September 05, 2006

विदेश में गणेशजी और मेरा मन मयूर
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प्रथमं वक्रतुंण्डं च एकदन्तं द्वितीयकम ,
तृतीयं कृष्णपिङगाक्षं गजवक्त्रं चतुर्थकम
लम्बोदर पन्चमं च षष्ठं विकटमेव च
सप्तमं विघ्ह्नराजेन्द्रं धूम्रवर्णं तथाष्टमम
नवमं भालचन्द्रं च दशमं तु विनायकं
एकादशं गणपतिं द्वादशं तु गजाननं,
द्वादशैतानि नामानि त्रिसन्ध्यं य: पठेन्नर:
न च विघ्नभयं तस्य सर्व सिधिकरं परम ॥


भाद्रपद में गणेश जी का त्यौहार भारत के पश्चिम के हिस्से में खूब उल्लास से मनाया जाता है । मेरा लालन- पालन बंगाल मै हुआ और मेरी शिक्षा भी बंगाल में हुई है । गणेश उत्सव हमारे बंगाल में इतना नहीं है जितना देवी की आराधना पर जोर दिया जाता है । बंगाल में आज भी लड़की को उँचा स्थान दिया जाता है शायद इसलिये देवी के साथ ही देवता को बंगाल में पूजते हैं ।

महाराष्ट्र में अकेले ही गणेश जी की शोभा यात्रा बहुत धूम धाम में निकालते है, मैने कभी इस आंनद को महसूस नही किया था ।जब विवाह के बाद मैने पहली बार गणेश जी का त्यौहार अमेरिका मै देखा तो मन प्रसन्न हो गया । मेरे पड़ॊस में ही एक परिवार की भाभीजी ने गणेश जी की मूर्ति की स्थापना की और उन्होने नियम से दोनो समय मंगल आरती गायी । उनके यहाँ सभी लोग आमन्त्रित थे । ऐसा नही कि केवल उनके अपने ही शामिल हुए हों आस-पास में जो लोग भारत से जुडें हुए हैं और इन परंपराओं की कमी मह्सूस करते है वे तो उस आरती व उत्सव में रम ही गये !

उन्हें ऐसा लग रहा था कि वे लोग विदेश में नहीं भारत में आ गये हैं । सभी लोगों का जोर से "गणपति बप्पा मोरया" का जय घोष करना । यह सब एक दिन नहीं पूरे १० दिन तक चला ।

दसवें दिन भाभी जी ने गणेश जी के विसर्जन से पहले जितने भी लोग आरती मे शामिल थे उनके लिये भोजन का प्रबंध किया हुआ था । भाभी जी को मेरा घर नहीं मालूम था, उन्हे यह पता था कि मैं आस पास कहीं रहती हूँ क्योंकि मैं भी आरती मे नियम से ्पूरे १० दिन गयी थी । उन्होनें किसी तरह से पता किया मेरा घर और न्योता किया कि उनके यहाँ खाना है ।
हम सभी उनके घर भोजन के लिय गये । गणपति जी को विदा करने से पहले सब ने मगंलमय की प्रार्थना की और साथ में अगले बरस आने की कामना की । उसके उपरान्त भाभी जी ने गुलाल से सभी को टीका किया और रगं उडाया । यह उत्सव मेरे लिय काफ़ी पावन था क्योंकि मैने कभी गणेश उत्सव इस रूप मे नही देखा था ।

मेरा मानना है कि आप चाहे कही भी रहे अपना देश हो या विदेश अपनी जो मूल्यवान सभ्यता और संस्कृति है वह न भूलें और उसे पूरे आन्नद व उल्लास के साथ मनायें जिस प्रकार हमारी पडोस में रहने वाली भाभी जी बनाया और उसे बोझ नहीं समझा ।